मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान
वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व में एक ज्वलंत वायुमंडलीय मुद्दा है। जिसके लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद एवं नेता चिंतित हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिए पृथ्वी से प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित विभिन्न प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें (कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प, क्लोरो-फ़्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ़्लोरोकार्बन, इत्यादि) ज़िम्मेदार हैं। सामान्यतः ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को ज़िम्मेदार माना जाता है, किन्तु ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में मीथेन कार्बनडाईऑक्साइड की अपेक्षा लगभग 30 गुना प्रबल है।
करीब 1.8 पी.पी.एम. मात्रा में मौजूद मीथेन गैस वातावरणीय आक्सीकरण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह क्षोभमंडलीय जलवाष्प का भी कारण है, जो ओज़ोन क्षरण को प्रभावित करता है। विभिन्न स्रोतों से उत्सर्जित मीथेन गैस 15-20% ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने मे सहायक है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी) के अनुसार, मीथेन स्तर 1% प्रति वर्ष के हिसाब से 19वीं शताब्दी में 700 पी.पी.बी से बढ़कर अब तक ~1840 पी.पी.बी हो चुका है।
वैश्विक परिदृश्य में, लगभग 90% मीथेन क्षोभमंडल में मौजूद मुक्त हाईड्रोक्सिल आयनों (वायुमण्डल के प्रक्षालकों) द्वारा रासायनिक अभिक्रियाओं के जरिये आक्सीकृत हो जाता है। जबकि आक्सीय मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं (मेथनोट्रोफ्स) की उपस्थिति के कारण दूसरी सबसे बड़ी मीथेन अवशोषक है।
वैश्विक मीथेन उत्सर्जन
मीथेन मुख्यतः प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित होता है। वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन (598 मीट्रिक टन) तथा अपनयन (576 मीट्रिक टन) में असंतुलन के कारण वायुमंडल में मीथेन की मात्रा 22 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है। प्राकृतिक तौर पर मीथेन आर्द्र भूमि, दीमक, महासागरों, हाइड्रेट्स इत्यादि से उत्सर्जित होता है, जबकि मानवकृत स्रोतों में धान के खेती, कोयला खदानें, जीवाश्म ईंधन, प्राकृतिक गैस, कृषि पशुधन, म्यूनिसिपल अपशिष्ट व म्यूनिसिपल अपशिष्ट जल, बायोमास का जलना आदि मुख्य हैं। प्राकृतिक स्रोतों में आर्द्र भूमि (30%) मीथेन का सबसे बड़ा है। जबकि वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का करीब 60% मानुषी क्रियाओं द्वारा होता है।
मीथेनउत्सर्जक जीवाणु (मेथनोजेन बैक्टीरिया)
प्राकृतिक तौर पर मीथेन का उत्सर्जन मीथेनउत्सर्जक जीवाणुओं द्वारा संपादित होता है। ये जीवाणु कार्बनिक यौगिकों का अनाक्सीय विधि द्वारा (आक्सीजन की अनुपस्थिति में) अपघटन करते हैं। जिसमें कार्बनडाईऑक्साइड एवं मीथेन गैस उत्पन्न होती है। मीथेनउत्सर्जक जीवाणु आर्कीबैक्टीरिया ग्रुप के सदस्य होते हैं। ये गोलाणुवत् या दंडाणुवत् होते हैं।
मेथनोकाकस, मेथनोकैलियस, मेथनोसार्सिना, मेथनोप्लानू, मेथनोस्पाइरिलम, इत्यादि मीथेनउत्सर्जक जीवाणु जल प्लावित स्थानों, अवसादों तथा तलछटों में रहकर रासायनिक अभिक्रियाओं के फलस्वरूप मीथेन उत्सर्जित करते हैं। इसके अलावा कुछ मीथेनउत्सर्जक ग्रुप के सदस्य जुगाली करने वाले जानवरों के आमाशय में भी वास करते हैं। जो वहाँ मौजूद अन्य जीवाणुओं से मुक्त हाइड्रोजन तथा कार्बनडाईऑक्साइड द्वारा मीथेन उत्पादित करते हैं।
मीथेनशोषक जीवाणु (मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया)
मीथेनशोषक एक अकेन्द्रक (प्रोकैरयॉट) जीवाणु है, जो मीथेन को अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए प्रयोग करता है। अब तक ज्ञात स्रोतों के अनुसार धरती पर मीथेनशोषक ही केवल ऐसी जैविक इकाई है जो इस ग्रीन हाउस गैस को अपने ऊर्जा एवं कार्बन के रूप में उपयोग करता है। अनुमान के अनुसार, मीथेनशोषकों द्वारा पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 10-40 टेराग्राम मीथेन आक्सीकृत होती है जो कि संपूर्ण आक्सीकृत मीथेन का लगभग 6-10% तक होता है।
मीथेनशोषक धरती पर सर्वव्यापी होते हैं, जो सामान्य क्षेत्रों (आर्द्र भूमि, धान के खेत, वन मृदा, समुद्री जल, कीचड़, गोबर, इत्यादि) से लेकर अतिशय कठिन परिस्थितियों (गरम जल स्रोतों, ठंडे प्रदेशों, इत्यादि) में भी पाये जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मीथेनशोषकों का प्रयोगशाला में कल्टीवेशन (उगाना) अपेक्षाकृत कठिन होता है, अभी तक केवल कुछ वंशो /स्पीसीज़ को ही सफलतापूर्वक कल्टीवेट किया जा सका है। मीथेनशोषकों को क्रमिक उद्भव, कार्यिकी, आकार एवं जैव रासायनिक गतिविधियों के आधार पर अध्ययन हेतु
मुख्यतः टाइप I (मिथायलोमोनास, मिथायलोस्फेरा, मिथायलोसार्सिना, मिथायलोमाइक्रोबियम, मिथायलोबैक्टर, मिथायलोकैलडम, मिथायलोकोकस, मिथायलोहैलोबस, इत्यादि) एवं टाइप II (मिथायलोसिस्टिस, मिथायलोसेला, मिथायलोकैप्सा, इत्यादि) में बांटा गया है। ये गोलाणुवत्, दंडाणुवत्, अर्धदंडाणुवत् एवं सर्पिलाकार होते हैं। जबकि हाल में खोजे गए वेरुकोमाइक्रोबिया को टाइप III मीथेनशोषक के रूप में निरूपित किया जा सकता है। मीथेन अवशोषण के आधार पर निम्न एवं उच्च एफिनिटी (आकर्षण) आक्सीकारक मीथेनशोषकों में बांटा गया है। निम्न एफिनिटी आक्सीकारक मुख्यतः उच्च मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर जबकि उच्च एफिनिटी आक्सीकारक निम्न मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर वास करते हैं।
चित्र 1: मीथेन का पर्यावरण में उत्सर्जन एवं अवशोषण का रेखांकन दर्शाया गया है
ग्रीन हाउस गैस (मीथेन) प्रशमन
मीथेनशोषक जीवाणु अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए मीथेन को कार्बन एवं ऊर्जा के रूप में प्रयोग करता है। मीथेनशोषक वातावरण में मौजूद मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एंजाइम मीथेन को कार्बनडाईऑक्साइड एवं अन्य छोटे घटकों में विघटित कर देता है। मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मुख्यतः दो (पर्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एवं सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज) प्रकार का होता है।
पार्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मिथायलोसेला को छोडकर लगभग सभी मीथेनशोषकों में रिपोर्टेड है, जबकि सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज केवल कुछ मीथेनशोषकों में ही पाया जाता है। टाइप I मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन को रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा टाइप II सेरीन पाथवे द्वारा आक्सीकृत करते हैं। उपर्युक्त एंज़ाइम द्वारा मीथेन मेथनोल में परिवर्तित होकर अन्य एंज़ाइमों की सहायता से फार्मेल्डिहाइड बनाता है, तत्पश्चात रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा सेरीन पाथवे द्वारा अंतिम उत्पाद कार्बनडाईऑक्साइड के रूप में उत्सर्जित होता है।
एमडीएच= मेथनोल डिहाइड्रोजिनेज, एफ़एडीएच= फार्मेल्डिहाइड डिहाइड्रोजिनेज, एफ़डीएच= फार्मेट डिहाइड्रोजिनेज
प्रदूषण क्षरण में योगदान
वर्तमान परिस्थितियों में प्रदूषण एक भयावह रूप ले चुका है। जिसके कारण तमाम तरह की बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। प्रदूषण क्षरण हेतु पूरी दुनिया में नित नई तकनीकी विकसित हो रही है। किन्तु प्रदूषण को ख़त्म करने के लिए जीवाणुओं का प्रयोग किफ़ायती एवं पर्यावरण के अनुकूल होता है। जीवाणुओं में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के एंजाइम प्रदूषकों के जटिल आंतरिक बन्धों/रासायनिक यौगिकों को तोड़कर सरल घटकों में बदल देते हैं।
जो प्रकृति में आसानी से पुनर्चकृत हो जाता है। कई वैज्ञानिकों शोधों के अनुसार, मीथेनशोषकों में पाए जाने वाले एंजाइम मीथेनमोनोआक्सीजिनेज का मीथेन के ऑक्सीकरण अलावा हानिकारक भारी धातुओं, एलिफैटिक हैलाइड्स, एरोमैटिक यौगिकों के इको-फ़्रेंडली निस्तारण में भी सहायक है। जो मृदा में विभिन्न स्रोतों के जरिये पहुँचकर कृषि उत्पादन में अवरोध एवं कई बीमारियों का कारक बनती हैं। साइन्स जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मीथेनशोषक जीवाणु अवायवीय सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित खतरनाक न्यूरोटोक्सिन मेथिलमर्करी को भी अपने उपापचयी एंजाइमों के जरिये सरल घटकों में तोड़कर अवशोषित कर लेते हैं।
वर्तमान युग में विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ में स्थापित हो रही औद्योगिक इकाइयों के कारण कई नई तरह की समस्याओं ने जन्म लिया है। जहाँ एक तरफ विकास के नाम पर वनों के अंधाधुंध कटान को प्रोत्साहन मिल रहा है, वहीं लोगों को आवास एवं पेट भरने के लिए भी निरंतर निर्वनीकरण हो रहा है। जिसके कारण पशु-पक्षियों के वास स्थान के साथ-साथ सूक्ष्मजीवों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। अभी हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि मीथेन आक्सीकरण 10 प्रतिशत तक बढ़ जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेवल में संतुलन आ सकता है।
शोध निष्कर्ष इस तथ्य को प्रमाणित करते है कि वन मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं का सर्वश्रेष्ठ वास स्थान है। परंतु निर्वनीकरण के फलस्वरूप मीथेनशोषकों के वास स्थान में क्षरण हुआ है। जिसके कारण उनके वंशो /स्पीसीज़ में कमी देखी गयी है।
चित्र 2: मीथेनशोषक जीवाणुओं द्वारा संपादित उपयोगी कार्य
आधुनिक युग में हमें धारणीय (सस्टनेबल) विकास की तरफ ध्यान देना होगा, जिससे न तो जीवन का मार्ग अवरुद्ध हो और ना ही पृथ्वी सहित अन्य जीव-जंतुओं को हानि पहुँचे। वर्तमान समय में पूरे विश्व में अहर्निश औद्योगिक विकास के चलते पेड़ों के अंधाधुंध कटान, ग्रीन हाउस गैसों के निरंतर उत्सर्जन, नष्ट न होने योग्य जीनोबायोटिक यौगिकों के पर्यावरण में पहुँचने इत्यादि के कारण पारिस्थितिक तंत्र पर हो रहे कुप्रभाव से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।
दुनिया के कई देशों के गैर जिम्मेदाराना रवैये को देखते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन दर पर लगाम लगाना आसान नही है। किन्तु वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि मीथेन अवशोषण 10% तक बढ़ा दिया जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेविल में संतुलन हो सकता है। चूंकि मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन का अवशोषण करते हैं, इसलिये मीथेनशोषकों के वंशों का प्रयोग मीथेन संतुलन में सर्वोत्तम होगा। जिन क्षेत्रों से वनों का क्षरण हुआ है, उस भूमि को पुनर्वनाच्छादित करना होगा। जिससे क्षरित मीथेनशोषकों का पुनर्स्थापन, वैश्विक मीथेन स्तर पर लगाम लग सके तथा ग्लोबल वार्मिंग का स्तर कम हो। पृथ्वी पर जीवन सतत एवं समृद्धशाली बन सके।