पर्यावरण प्रबन्धन मे बायोचार की भूमिका

वर्तमान समय में पर्यावरण की समस्या पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। पूरी दुनिया में पर्यावरण सम्बन्धी समस्याओं के निराकरण हेतु लगातार कई मुद्दों पर वैज्ञानिक सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं। परन्तु स्थाई समाधान अभी भी हमारी पहुँच से कहीं दूर है। पर्यावर्णीय संतुलन दिन पर दिन बिगड़ता जा रहा है। यदि यही स्थिति रही तो आने वाले दशकों  में पर्यावरण मुद्दा एक विकराल समस्या बनकर हमारे सामने खड़ा होगा और जिसके कारण सम्पूर्ण मानव जाति के विनाश को कोई रोक नहीं पायेगा। वर्तमान में हमें पर्यावरण के दुष्परिणाम दिखने लगे हैं, जैसे ग्लोबल वार्मिंग का बढ़ जाना, बारिश समय पर नहीं होना या अपेक्षाकृत कम होना, मृदा का दूषित हो जाना इत्यादि समस्यायें आकार लेने लगी हैं।

इन समस्याओं को देखते हुए पर्यावरण प्रबन्धन अतिआवश्यक है। क्योंकि जनसंख्या एवं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विभिन्न प्रकार के कारक पर्यावरण संतुलन को प्रभावित कर रहे हैं। यह तभी संभव होगा जब हम पर्यावरण के अनुकूल वस्तुओं का उपयोग करेंगे। इंसान के खाने-पीने से लेकर उसके रहन-सहन का पूरा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है। अर्थात पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी ज्ञान नहीं होने के कारण इंसान पर्यावरण को अपनी दैनिक क्रियाओं द्वारा दूषित कर रहा है, उदाहरण के तौर पर कृषि में उपयोग की जाने वाले विभिन्न रासायनिक उर्वरक, अत्यधिक मात्रा में कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन आदि कारक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को हानि पहुँचा रहे हैं।

जिसमें मृदा, जल एवं वायु प्रदूषण मुख्य हैं। कुछ पर्यावरण अनुकूलन तकनीकों को अपनाकर हम पर्यावरण को स्वच्छ रख सकते हैं। कृषि उत्पादन में रासायनिक उर्वरक के स्थान पर जैविक उर्वरक अथवा बायोचार का उपयोग कर भी पर्यावरण संदूषण से बचा जा सकता है।

बायोचार क्या है ?

बायोचार उच्च कार्बन युक्त गहरे काले रंग का ठोस पदार्थ होता है। जिसको किसी कनस्तर अथवा ड्रम के अंदर वायु की सीमित मात्रा में आग मे जलाकर बनाया जाता है। बायोचार कृषि अपशिष्ट (धान, गेहूँ, ज्वार की भूसी, कुक्कुट अपशिष्ट इत्यादि) के पायरोलिसिस द्वारा तैयार किया जाता है। बायोचार का उपयोग उर्वरक के रूप में फसल उत्पादन मे करके कई तरह की पर्यावर्णीय समयाओं से बचा जा सकता है। अपशिष्ट को बायोचार में परिवर्तित कर उसको मृदा उपयोगी बनाया जाता है। जिससे कि पर्यावरण स्वच्छ रहता है।

इस प्रकार कृषि अपशिष्ट भी पुनर्चकृत होकर कृषि कार्य में उपयोगी हो जाता है। बायोचार पर्यावरण अनुकूल पदार्थ होता है। यह पर्यावरण संतुलन में उच्च स्तर की भूमिका निभाता है। मृदा में इसके उपयोग से मीथेन (ग्लोबल वार्मिंग में कार्बनडाईऑक्साइड की अपेक्षा लगभग ३० गुना प्रबल) के उत्सर्जन को कम किया जा सकता है। मृदा में उपस्थित उच्च धातुओं तथा अन्य संक्रमण को डिटोक्सिफिकेशन  करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है| मुख्यत: बायोचार का उपयोग मृदा सुधार एवं उर्वरा शक्ति को बढाने में किया जाता है। बायोचार के मृदा में उपयोग से पर्यावरण उपयोगी जीवाणुओं की संख्या बढ जाती है। जो मृदा के स्वास्थ्य के साथ-साथ फसलों के उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। 

बायोचार के पर्यावरण में लाभ:-

वर्तमान समय मे बयोचार का  उपयोग मुख्य रूप से उच्च स्तरीय कृषि उत्पादन प्राप्त करने के लिए किया जा रहा है| क्योकि इसके उपयोग से पर्यावरण अनुकूल एवं किफायती दर का कृषि उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है तथा विभिन्न अनुशंधानो से यह साबित हो चुका है कि बायोचार कृषि के लिए एक उपयोगी उर्वरक होता है इसके उपयोग से मृदा सुधार मे सकारात्मक परिणाम देखने को मिलते है उदाहरण के लिए- मृदा की उर्वरा शक्ति का बढ जाना, पोषक तत्वों की मृदा मे संपोषणीयता को बनाये रखना तथा पर्यावरण मे उच्च धात्विक तत्वों के निस्तारीकारण हेतु भी बायोचार की मुख्य भूमिका रहती है|

साथ ही साथ बयोचार का उपयोग जैविक ईधन के रूप में किया जाता है| बयोचार उत्पादन के दौरान संघनन की क्रिया द्वारा जैव ईधन को तैयार किया जाता है| बायोचार उत्पादन के दौरान कई सारी गैसे निकलती है जिनका उपयोग जैविक ऊर्जा के लिए किया जाता है तथा बायोचार का इन सब के साथ साथ ग्लोवल वार्मिंग में भी साहरानीय योगदान है| बायोचार मृदा से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है| जो वर्तमान मे  ग्लोबल वार्मिंग की एक विकराल समस्या बनी हुई है|

पर्यावरण प्रबन्धन मे बायोचार की भूमिकाचित्र:  पर्यावरण में बायोचार के लाभ

 

जलवायु परिवर्तन को कम करने में

जलवायु परिवर्तन की समस्या इतनी ज्यादा बढ़ चुकि है कि जन जीवन पूरी तरह से प्राभावित होने लगा है जलवायु परिवर्तन पर हो रही विश्व स्तर की सारी वार्ता विफल होती नगर आ रही है अर्थार्त अभी तक कोई भी उचित समाधान नहीं निकल पाया है जिससे की यह समस्या दिन प्रति दिन बढती ही जा रही| अगर कोई उचित समाधान शीघ्र ही नहीं हो पाया तो वह वो दिन दूर नहीं कि इंसान को अपना जीवन यापन करने मे एड़ी चोटी का दम लगाना पड़ेगा| यह भी नहीं कहा जा सकता कि जलवायु परिवर्तन के लिए किसी एक देश के नागरिक ही जिम्मेदार है हर वो इंसान जो प्रथ्वी पर अपनी दैनिक क्रियाये करता है वह जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है|

सभी का पर्यावरण को दूषित करने में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से योगदान है उदारण के लिए पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं का उपयोग नहीं करना अथवा पर्यावरण अनुकूल कृषि का क्रियान्वयन नहीं करना आदि कारक सम्मलित है| धान के खेत से प्रतेक वर्ष ४०-४३ टेराग्राम  मीथेन गैस उत्सर्जित होती है वह कुल मीथेन उत्सर्जन का ६-१० प्रतिशत है जिसमे कि कुल ९० प्रतिशत धान का उत्पादन एशिया मे होता है| इन आँकडो से ही मीथेन उत्सर्जन का एशिया और फिर विश्व स्तर पर अंदाजा लगाया जा सकता है|

कृषि में उपयोग होने वाली भिन्न भिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वक भी कुछ हद तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है| इन सभी समस्याओं को देखते हुए हमें पर्यावरण अनुकूल वस्तुओ के उपयोग की आवश्कता है जैसे कि कृषि हेतु ऐसे उर्वरक जो पर्यावरण अनुकूल हो एवम् ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर सके| उदारण के लिए बायोचार का मर्दा में रासायनिक उर्वरको की जगह उपयोग करना क्योकि यह पर्यावरण अनुकूल उर्वरक होता है जिससे कि कृषि उत्पादन मे उच्च स्तर के परिणाम मिलते है साथ ही साथ पर्यावरण उपयोगी सूक्ष्म जीवो की संख्या को भी बढाता है|

बायोचार मृदा से उत्सर्जित होने वाली गैसों (मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड) के रिशाव को भी कम करने मे अहम भूमिका निभाता है| मीथेन  सामान्तय: धान के खेत, वन क्षेत्र एवं दलदली भूमि से उत्सर्जित होती है| बायोचार उपचारित मृदा मे मीथेन शोषक जीणुओ की संख्या पर भी सकारात्मक प्रभाव देखा गया है जो मीथेन अवशोषित करने मे सकारात्मक भूमिका निभाते है|

ऊर्जा उत्पादन में

वर्तमान मे उपयोग में लाये जाने वाले ईधन की दिन प्रति दिन आपूर्ति नहीं होने के साथ साथ उसके दाम में भी वृदि होती जा रही है जिसको उपयोग मे लाना आम आदमी के वस के बहार हो चुका है ऐसे में जरुरत है किसी ऐसी तकनीकी को विकसित करने की जिससे की इन सभी समस्याओं से निजात मिल सके और भविष्य भी सुरक्षित हो सके इन सब को देखते हुए भिन्न भिन्न प्रकार की तकनीकी विकसित की जा रही है जैसे की समुद्र बायोमास, एवं जेट्रोफा की फसल को उपयोग में लाकर ईधन उत्पादन किया जा रहा है,

इन सभी के साथ साथ तीसरी सबसे ज्यादा उपयोगी तकनीकी, अपशिष्ट पदार्थ के बायोमास की पायरोलिसिस के द्वारा बायोचार के उत्पादन के साथ साथ जैविक ईधन को तैयार करना यह एक बहुत ही किफायती एवं पर्यावरण अनुकूल  तकनीकी है जिससे की किसी भी अपशिष्ट कार्बनिक पदार्थ को उपयोग में लाकर उसको वायु की आंशिक उपस्थिति में जला कर (पायरोलिसिस) की क्रिया द्वारा तैयार किया जाता है| जब किसी बायोमास को वायु आंशिक उपस्थिति मे जलाया जाता है तब उससे बूंदों के रूप मे द्रव्य निकलता है जो संघनित होने पर जैव ईधन का काम करता है एवं शेष ठोस भाग बायोचार के रूप में एकत्र कर लिया जाता है विश्व के कुछ देशो मे यह खाना बनाने एवं वाहनों मे एक ईधन के रूप मे काम में लाया जा रहा है

इस तकनीकी के माध्यम से प्रकृति में बढ़ रहे कार्बनिक अपशिष्ट की मात्रा भी कम होती है और कृषि उपयोगी उपयोगी पदार्थ भी बन जाता है| अगर कृषि अपशिष्ट की बात करे तो मिलियन टन के हिसाब से प्रतेक वर्ष कृषि अपशिष्ट कृषि भूमि से निकलता है जिसको की विश्व के ज्यादातर हिस्सों मे जला दिया जाता है या उसी भूमि में गला दिया जाता है| इस प्रकार से उसका वास्तविक लाभ नहीं तो मृदा को मिल पता है और ना ही किसान को, एक सबसे  बढ़ा चिंता का विषय यह है की जनसंख्या के विस्फोटक वृदि के स्तर को देखते हुए किस प्रकार से पर्याप्त मात्रा में मानव के लिए खाद्य उपयोगी जरुरतो को मुहिया कराया जाये| इन सभी समस्याओं को संज्ञान में रखते हुए बायोचार आधारित तकनीकी बहुत लाभकारी साबित हो सकती है|

पर्यावरण प्रबन्धन मे बायोचार की भूमिका

 चित्र: अपशिष्ट पदार्थ के द्वारा बायोचार एवं जैविक तेल का उत्पादन  

 

अपशिष्ट प्रबन्धन

प्रकृति में फैले अपशिष्ट पदार्थ का बायोचार का उत्पादन करके उसको कृषि एवं ऊर्जा उपयोग के योग्य बनाया जा सकता है जिससे कि उस व्यर्थ पड़े पदार्थ का कृषि में उपयोग करने पर एक अच्छा फसल उत्पादन भी मिल सकता है  और साथ ही साथ उसका पुनर्चक्रण भी हो जाता है तथा बायोमास के पायरोलिसिस की क्रिया से निकलने वाले तरल पदार्थ को ऊर्जा हेतु उपयोग किया जा सकता है| इस अपशिष्ट पदार्थ के ज्यदा समय तक  पर्यवारण मे पड़े रहने से पर्यावरण दूषित होता है जिससे  कि तरह तरह की स्वास्थ समस्याओं का सामना करना पड़ता है|

यह तकनीकी अपशिष्ट पदार्थ के प्रबन्धन हेतु बहुत उपयोगी साबित हो चुकी है| यह एक सस्ती एवं टिकाऊ तकनिकी है जिसके द्वरा पर्यावरण स्वच्छता के साथ साथ आय भी उत्पन्न होती है| जैसे कि बायोचार का उपयोग कृषि उत्पादन मे किया जा सकता है और पायरोलिसिस की क्रिया द्वारा उत्पन्न द्रव का उपयोग जैविक ईधन के रूप मे विभिन्न मकसद से किया जा सकता है| इस तकनीकी से बड़ी मात्रा में फैले अपशिष्ट पदार्थ का छोटे एवं बड़े स्तर पर प्रबन्धन किया जा सकता है| वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी यह तकनीक बहुत उपयोगी साबित हो चुकी है|

 

मृदा सुधार मे

कृषि उत्पादन के लिए विश्व भर में बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरको का प्रयोग हो रहा है जिससे कि मृदा की  उर्वरक शक्ति प्राभावित होती है तथा मृदा के भौतिक-रासायनिक एवं जैविक गुणो पर भी विपरीत असर पड़ रहा है| वह फसल की उत्पादन दर दिन प्रति दिन कम होती जा रही है एवं साथ ही साथ मृदा की जैव विभिद्ता भी कम हो रही जिसमे की कृषि उपयोगी सूक्ष्म जीवो की संख्या मे भी कमी आ रही है| इन सब का सीधा असर मृदा की उर्वरक शक्ति पर पड़ता है और यदि इसके विपरीत कृषि उत्पादन में जैविक एवं बयोचार जैसे उर्वरको का उपयोग किया जाये तो मृदा को स्वास्थ रखा जा सकता है|

बायोचार मृदा की भौतिक रासायनिक गुणो के साथ साथ यह मृदा के जैविक गुणो पर भी सकरात्मक प्रभाव डालता है| यह मृदा की नमी रोकने की क्षमता को बढाता है तथा मृदा कणों के घनत्व को कम करता है क्योंकि बायोचार का घनत्व कम होता है| बायोचार मृदा उपयोगी सूक्ष्म जीवो के लिए एक शुरक्षा कवच का काम करता है जिससे की मृदा में उपस्थित दूसरे जीव का शिकार होने से बच जाते है जैसे निमेटोड, प्रोटोजोया आदि| बायोचार में लगभग ८० प्रतिशत कार्बन तथा वाकी अन्य तत्व पाये जाते है| वह सभी मृदा मे जरुरी पौषक तत्वों का काम करते है| बायोचार उपचारित कृषि की उत्पादन क्षमता बायोचार के गुणो पर निर्भर करती है|

अर्थार्त बायोचार किस तापमान पर तैयार किया गया है यह महत्पूर्ण होता है| सामान्यत: बायोचार ५००, ६००, ७००, ८००, ९००, १००० डिग्री सेंन्टीग्रट तापमान पर तैयार किया जाता है परन्तु ५००-६०० डिग्री सेंन्टीग्रट तापमान पर तैयार किया गया बायोचार मृदा के लिए ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है क्योकि इसके अंदर मृदा उपयोगी लगभग अधिकतर पौषक तत्व विद्धमान होते है| अगर संक्षेप मे बायोचार के महत्व की बात की जाये तो यह पर्यावरण अनुकूल पदार्थ होता है इसका कोई भी नकारात्मक प्रभाव पर्यावरण पर नहीं पड़ता है| यह बात उच्च स्तरीय वैज्ञानिक अनुशंधानो से सिद्ध भी हो चुकी है|

पर्यावरण प्रबन्धन मे बायोचार की भूमिका

                        चित्र: फसल उत्पादन में बायोचार का उपयोग ( स्रोतhttp://www.youtube.com/watch?v=f9MbLOLI600) 

Global Methane Emission and Consumption

Methane (CH4), a colourless and odourless potent green house gas (GHG) contributing up to one third to the total global GHG emissions, has been considered as main culprit behind the global warming and consequently the climate change. As it absorbs infrared radiation so contributes about 15 to 20% in existing the earth temperature. The increasing concentration of CH4 in the environment is great cause for concerns because its global warming potential is up to 30 times greater than carbon dioxide (CO2).

It means increment of CH4 into the environment is about 30 times more effective in increasing global temperature than adding equal mass of CO2. In last couple of centuries, the CH4 atmospheric level has increased significantly because of an imbalance between global emission and consumption across different ecosystems.

The reports of Intergovernmental Panel on Climate Change (IPCC) dictated that the atmospheric concentration of methane has been doubled during past 200 years and its concentration is rising by an average rate of 1% per year over the past few years. The atmospheric level of CH4 has been reached up to 1840 ppb from 700 ppb since 19th century i.e. the current atmospheric amount of CH4 are 2.5 times higher than pre-industrial concentrations. So, it is important to find out the various ways that may be beneficial in balancing the atmospheric methane level at global level.

CH4 emission at global level

CH4 is emitted from both the natural and anthropogenic sources around the globe. The anthropogenic activity is mostly responsible for the major part of global CH4 emissions, which my comprise up to the 63% (~566 Tg CH4/year). However the remaining emissions are carried out naturally (208 Tg CH4/year). Anthropogenic CH4 emissions are generated by the agricultural livestock, paddy cultivation, fossil fuels, waste practices, landfills, coal mining, natural gas distribution and biomass burning.

Whereas natural sources comprise wetlands, oceans, rivers, lakes, estuaries, gas hydrates geological sources, vegetation including terrestrial plants, wildfires, arthropods, wild animals and permafrost, etc (Figure 1). The anthropogenic CH4 production has increased steadily since the dawn of the industrial revolution.

Figure 1: Chief methane emitters at global scale (Mt/yr) (Source: IPCC)

Biological CH4 fermentation (MF)

Biologically CH4 is emitted by anaerobic bacteria called as methanogens and the process may be termed to as methanogenesis. In water logged and swampy places, CH4 is produced as the terminal step of the anoxic (absence of oxygen) decomposition of organic matter generating CH4 and CO2.

The anaerobic decomposition of organic matter and generation of methane in flooded places involves mainly through (a) polymers hydrolysis by hydrolytic organisms, (b) action of fermentative bacteria to form acid from simple organic compounds, (c) formation of acetate from metabolites of fermentations by homo-acetogenic or syntrophic bacteria, and (d) CH4 formation from H2/CO2, acetate, simple methylated compounds or alcohols and CO2.

MF is a versatile biotechnology able to convert polymeric materials to CH4 and CO2 anaerobically and achieved by the successive breakdown of polymers with a variety of unicellular organisms including acidogens (fermentative microbes), acetogens (acetate-forming microbes), methanogens and hydrogen-producing bacteria. Anaerobic bacteria play a very significant role in the formation of stable atmosphere at different stages of methane fermentation.

For the advantageous point of view, MF offers an efficient means of pollution abatement and provides superior way than the results achieved via traditional aerobic procedures. Although, the process is reported and used since 19th century, but the interest has only recently focused. It has been used for the treatment of excess sludge released from sewage-treatment plants. The MF technology has since been urbanized to treat waste waters, discharged from distilleries, tanneries, antibiotic and baker’s yeast manufacturing units.

Methanogens (methane generating bacteria)

Methanogens are spherical (coccoid) or rod shaped (bacilli) Archaebacteria. They are anaerobes and are very sensitive to the presence of very low level oxygen  i.e. cannot survive under aerobic environment. There are over 50 species of methanogens have been isolated from waterlogged, sediments and many such places. Despite this methanogens also thrive in the stomach of ruminants and produce CH4 from CO2 and hydrogen released by other microbes residing.

Some examples of methanogens are: Methanococcus, Methanoculleus, Methanosarcina, Methanoplanu, Methanospirillum etc. However, Methanosarcina barkeri have been reported to contain superoxide dismutase (SOD) enzyme (which save organisms from the lethal effects of oxygen) and may survive longer than the others in the presence of O2. Moreover, some species use CO2 to sustain life called hydrogenotrophic.

CH4 consumption at global level

In global perspective, CH4 is oxidised by chemical and biological processes. The main sinks of CH4 are photochemical oxidation in atmosphere and microbial consumption at or near the sites of emission. Approximately 90% of the atmospheric CH4 is oxidized chemically within the tropospheric region with free hydroxyl radicals ‘the detergents of the atmosphere’.

Moreover, aerobic upland soils are the second major biological consumers for CH4 due to the presence of methanotrophic bacteria. Methanotrophs (CH4-oxidising bacteria, MOB) are the unique biological entity on earth scavenging CH4 biologically and play a very vital role to mitigate significant amount global CH4 load. It is reported that soil methanotrophic bacteria are associated with the removal of 10-40 Tg CH4/year, which comprises up to 6-10% of the global CH4 consumption.

The methanotrophs associated with the roots of rice paddies oxidise about 10-30% of the CH4 emitted by methanogens in rice field, which are one of the leading producer of potent GHG.

 

Figure 2: CH4 emission and consumption in environment

CH4 scavengers (CH4 eating bacteria)

Methanotrophs are diverse groups of gram-negative bacteria. They are sole biological sink of CH4 with proficiency of using CH4 for their carbon and energy needs. They are cosmopolitan and can be isolated from a wide variety of environments including extreme conditions. On the basis of CH4 oxidising pathways they have been divided on into type I (use RuMp patway, includes Methylomonas, Methylosphaera, Methylomicrobium, Methylosarcina, Methylobacter, Methylocaldum, Methylococcus, Methylohalobius, and Methylosom) and type II (use Serine pathway, includes Methylocystis, Methylocella, Methylocapsa and Methylosinus). Moreover, recently discovered Verrucomicrobia may be referred as type III.

Methanotrophs contain CH4 monooxygenase (MMO) enzyme to oxidise CH4 into CO2 through different steps (Figure 2). There are two distinct forms of this enzyme, the membrane-bound particulate CH4 monooxygenase (pMMO) and the cytoplasmic soluble methane monooxygenase (sMMO).

Figure 3: CH4 oxidation pathway (MMOs: CH4 monooxygenase; MDH: methanol dehydrogenase; MDH: formaldehyde dehydrogenase; FADH: formate dehydrogenase; FDH)

Reforestations of waste lands can contribute in CH4 mitigation

The world human population has been increased up to 250% in last six decades with a boom of 2.6 to 7.2 billion and is expected to cross 9.6 billion by the end of year 2050. In order to provide food for all, the production of cereals needs a leap of nearly 50% annually. This difficult goal puts heavy pressure on agriculture to gain food security. To attain large surface area for agriculture land expansion putting heavy load on the forests.

The conversion of natural subtropical forest to farmland lowers the CH4 sink capability of soil. However, the same may be recovered after afforestation. Addition of inorganic fertilizers into fields also disturbs the CH4 sink activity. In addition, the developmental activities are going throughout the world leading to cut down of trees as well as releasing large amount of GHGs into the atmosphere.

Since, we cannot stop the blind run of development immediately, therefore, should think positively regarding the safety measures and remedies. A 10% increase in CH4 consumption rate may stabilize the current concentration of this potent GHG in the environment.

Many scientific reports summarize that the forest soil is best suited for the growth and functioning of methanotrophs and consequently mitigating global CH4 budget (Figure 4). It has been discussed that afforestation, reforestation, improved forest management and reduced deforestation considerably contributes to reductions in excess atmospheric CH4 load.

Figure 4: CH4 sink activity across different land use types (Source: Singh and Gupta, 2016)

Applied facets of CH4 scavenging bacteria

CH4 scavenging bacteria (methanotrophs), an important group of microbes, are generally considered to consume the CH4 (a potent green house gas) in atmosphere. The CH4 consuming unique enzyme methane monooxygenase (MMOs) present in these bacteria not only destroy the CH4, but also have capability to degrade/metabolise several pollutants viz.

heavy metals (Cr, Cd), aliphatic hydrocarbons (dichloroethylene, trichloroethylene, vinyl chloride and chloroform), halogenated hydrocarbons, halogenated benzenes, toluene, styrene, polynuclear aromatic hydrocarbons and transition metals, phenanthrene, anthracene, and fluorine, neurotoxin methyl mercury, etc (Figure 5). So, these unique bacteria in nature with unique enzyme are contributing significantly at global level in the management ecosystems and environment.

Methanotrophic community structure associated with roots (rhizospheric region) also play beneficial role in the growth and development of plants. They can be used as single-cell protein, biopolymers, and nano-technological applications, soluble metabolites, lipids, growth media, and vitamin. Similar to other microorganism’s methanotrophs can also be genetically engineered to produce carotenoids, enzymes, etc. Methanotrophic bacterial cultures can be employed for wastewater denitrification, making of biosensors, and possibly electricity generation.

 

 

 

Figure 5: Versatility of methanotrophs in nature

 

According to food and agriculture organization (FAO) rice contributes over 43% to the country’s food grain production. India is second leading country in world with respect to production of paddy after China. China has more than 43 million ha of land area under paddy cultivation and produces approximately 125 million tonnes of rice. It is reported that flooded paddy fields are responsible for emission of CH4 to the environment.

So, other countries are blaming India regarding the contribution of significant increment of CH4 to the atmosphere because of the vast flooded paddy agriculture area. At the same it has been reported that dry land paddy agriculture showed CH4 consumption instead of CH4 emission. Therefore, Indian scientists are involved to develop new high yielding dry land rice varieties that may contribute significantly in CH4 reduction rates in future paddy agriculture.

In present scenario, we have been intensely involved in the blind run so called development, which is also adding different problems such as global warming, climate change, cancers, skin and lung problems, etc. Therefore, it is needed to adapt sustainable growth patterns for the safety and security of future generations. Application of biofertilizers, reforestation of disturbed land and afforestation, etc may be a good alternative to sustain the living beings and consequently reduction of CH4 emission in environment globally (Figure 6).

 

Figure 6: A hypothetical model demonstrating anthropogenic activities CH4 emission

बायोचार और उसका उत्पादन

बायोचार उच्च कार्बन उक्त ठोस पदार्थ हैं। वह उच्च तापमान पर तैयार किया जाता है, जिसमे ऑक्सीजन अनुपस्थित रहती या कम मात्रा में होती है। यह कहा जा सकता हैं कि यह एक आंशिक  अवायवीय प्रकिया है। जिसमे किसी भी कार्बनिक ठोस पदार्थ  को भिन्न भिन्न तापमान पर रख कर बायोचार को तैयार किया जाता है। बायोचार एक बहुत ही प्रभावशाली उर्वरक है।, जो कि अवशिषट कार्बनिक पदार्थो कि पायरोलिसिस की प्रकिया द्वारा तैयार जाता है।

यह एक उभरती हुई तकनीक है।, जो कि आधुनिक कृषि उत्पादन के लिए अतिआवश्यक है। बायोचार मृदा उर्वरक  शक्ति बढाने के साथ साथ फसल कि उत्पादकता को भी बढाता है। यह किसानों के लिए एक बहुत ही किफायती और बहुपयोगी तकनीक साबित हो चुकी है। बायोचार कृषि के साथ-साथ पर्यावरणीय दृष्टि से भी उपयोगी साबित हुआ है। क्योंकि इसके अनेक पर्यावरणीय महत्व हैं।

कृषि उत्पादन में बायोचार का महत्व    कृषि उत्पादन में बायोचार का महत्व

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चित्र- अ एवं ब में २० किलोग्राम क्षमता के ड्रम  में बायोचार उत्पादन को दर्शाया गया है। जिसमे कृषि अवशिष्ट के रूप में धान की भूसी को लिया गया है।

बायोचार की कृषि के क्षेत्र में उपयोगिता

(१) मृदा उर्वरता बढ़ाने में

मृदा की उर्वरा शक्ति बायोचार के द्वारा अलग अलग प्रकार से बढती है। जैसे कि मृदा की नमी को रोकने की क्षमता बढ़ना, मृदा घनत्व कम हो जाना, मृदा कि भौतिक-रासायनिक एवं जैविक गुणो का बढ़ जाना इत्यादि मापदंडो पर सकारात्मक प्रभाव होता है। और साथ ही साथ इसके द्वारा उपचारित मृदा की उर्वरा शक्ति अन्य उर्वरक की तुलना में अधिक मापी गयी है। वह फसल की उच्च उत्पादन क्षमता को दर्शाता है। बायोचार की उर्वरा शक्ति उसके तापमान पर आधारित है।

समान्यतया बायोचार ३००, ४००, ५००, ६००, ७००, ८००, ९०० और १००० डिग्री सेंटिग्रेड पर तैयार किया जाता है। परन्तु विभिन्न प्रकार के अनुसन्धानों  से पता चलता है कि ५००–६०० डिग्री सेंटिग्रेड तापमान पर तैयार किया गया बायोचार मृदा की उर्वरा शक्ति के लिए ज्यादा प्रभावशाली होता है। क्योंकि इस तापमान पर बायोचार के पोषक तत्व खत्म नहीं होते है। बायोचार के पोषक तत्व उसके आंतरिक गुणों पर भी निर्भर करते है। परन्तु जब उसको उच्च तापमान पर तैयार किया जाता है तो उसके पोषक तत्वों में कमी आ जाती है। इसलिए ५००–६०० डिग्री सेन्टीग्रड तापमान पर  तैयार क्या गया  बायोचार कृषि उपयोग के लिए उच्च कोटि का माना जाता है।

(२) सूक्ष्मजीवो का वासस्थान

बयोचार का उपयोग मृदा में मृदा उपयोगी सूक्ष्मजीवो की संख्या को बढाने में बहुत ही मददगार साबित हो चुका है क्योकि इसकी छिद्रउक्त आंतरिक संरचना सूक्ष्मजीवो के वास स्थान और जनन के लिए बहुत ही उपयोगी होती है मृदा में उपस्थित अनेक प्रकार के जीव जैसे कि निमेटोड, प्रोटोजोया और अन्य मृदा जीव उन सभी कृषि उपयोगी सूक्ष्मजीवो को अपनी खाद्य श्रखला का हिस्सा बना लेते है जिससे कि मृदा कि उर्वरक शक्ति प्राभावित होती है जिसके फलस्वरूप फसल उत्पादन कम हो जाता  है और साथ ही साथ मृदा में सूक्ष्मजैव विविधता भी घट जाती है

 (३) फसल उत्पादन क्षमता

अनेक प्रकार के अनुसंधानों से पता चला है कि बायोचार एक बहुपयोगी उर्वरक है। जो उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिससे कि किसानों की आय बढ़ती है और साथ ही साथ पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है। यह मृदा सूक्ष्मजीवों के लिए एक सुरक्षा कवच प्रदान करता है। फसल कि कायिक अवस्था से लेकर उसके परिपक्व होने तक महत्वपूर्ण योगदान देता है। फसल को मौसम के अनुकूल बनाता है तथा फसल अपनी कायिक अवस्था में ही उच्च स्तरीय वृद्धि को दर्शाती है। जिसमें कि पौधे की जड़ से लेकर तना, स्तंभ तक सकारात्मक प्रभाव देखा गया है। फसल रोपाई के बाद वृद्धि को अलग-अलग अवस्थाओं में मापा भी जा चुका है।

कृषि उत्पादन में बायोचार का महत्व     कृषि उत्पादन में बायोचार का महत्व

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चित्र: (अ) और (ब) में कृमश बिना बयोचार और बयोचार उपचारित मृदा में धान की फसल का एक परिदृश्य दिखाया गया है।

(४) मृदा पोषक तत्वों  के ह्रास में सुधार

मृदा में बायोचार का उपयोग करने से मृदा बनावट, छिद्रण, कण आकार, वितरण और घनत्व प्रभावित होता है। बायोचर का उपयोग मृदा की अम्लता को कम कर है। इसके अलावा मृदा कि विद्द्युत चालकता और धनायन विनिमय क्षमता को बढाता है। मृदा कि अम्लता के बढ़ने से  बायोचार की उपयोगिता मृदा में पोषक तत्वों की उपलब्धता को पूरा करता है। वह मृदा में पोषक तत्वों की कमी को दूर करता है। बायोचार मृदा कणों से बंधे रहते हैं, इस प्रकार मृदा में बायोचार १००-१००० वर्ष तक उपस्थित रह सकता है, जोकि मृदा कि उच्च उर्वरा शक्ति को दर्शाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बायोचार १००- १००० वर्षों तक पोषक तत्वों को अपने अंदर समाहित कर सकता है एवं मृदा को एक लम्बे समय तक उपजाऊ बना सकता है।

(५) बायोचार के रूप में कृषि अवशिष्ट का उपयोग

विश्व में प्रतेक वर्ष मिलियन टन के हिसाब से कृषि अवशिष्ट निकलता है जिसको की वह  के ज्यादातर देशो में आग के द्वारा जला दिया जाता है। वह बाद में एक अनावश्यक उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है, क्योकि उसके ज्यादातर पोषक तत्व वाष्पिकृट हो जाते है। और कुछ मात्रा में कार्बन एवम् अन्य तत्व शेष बचते है। बयोचार आधारित कृषि पर्यावरणीय स्वाच्छ तकनीकी पर आधारित है, लेकिन भारत में इस तकनीकी के आभाव में किसान कृषि अवशिष्ट को जिसके द्वारा पर्यावरण भी प्राभावित होता है।

वह जिस अवशिष्ट को जानकारी के आभाव जलाया जाता है, उसको बयोचार के रूप में अच्छी फसल उत्पादन लेने के लिए कृषि में प्रयोग किया जा सकता है इसके प्रयोग से विभिन्न प्रकार के रासयेनिक उर्वरक के प्रयोग से बचा जा सकता है वह कृषि मृदा के लिए बहुत हानिकारक होते है इस प्रकार से अच्छी फसल प्राप्त करके अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। दिन पर दिन रासायनिक उर्वरको के इस्तेमाल से मृदा के भौतिक-रासायनिक और साथ साथ  जैविक गुणो पर भी नकारात्मक प्रभाव होता है जिससे कि मृदा कि उर्वरक्ता आंशिक अथवा पूर्ण रूप से प्राभावित होती है।

जिससे कि फसल का उत्पादन कम को जाता है इसीलिए किसानो की आय भी प्राभावित होती है यदि वर्तमान में कृषि फसल उत्पादन को देखते है तो १५ वर्ष पहले की उतपादन दर याद आती है जो कि वर्त्तमान दर से लगभा दोगुना ज्यादा होती थी इसीलिए किसान का जीवन भी खुशहाल था परन्तु वर्तमान में दिन प्रतिदिन अच्छे उत्पादन की लालशा ने किसानो को विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरको का  उपयोग करने के लिए मजबूर कर दिया है,  जिसके दुष्परिणाम आज हमारे सामने है।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व में एक ज्वलंत वायुमंडलीय मुद्दा है। जिसके लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद एवं नेता चिंतित हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिए पृथ्वी से प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित विभिन्न प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें (कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प, क्लोरो-फ़्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ़्लोरोकार्बन, इत्यादि) ज़िम्मेदार हैं। सामान्यतः ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को ज़िम्मेदार माना जाता है, किन्तु ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में मीथेन कार्बनडाईऑक्साइड की अपेक्षा लगभग 30 गुना प्रबल है।

करीब 1.8 पी.पी.एम. मात्रा में मौजूद मीथेन गैस वातावरणीय आक्सीकरण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह क्षोभमंडलीय जलवाष्प का भी कारण है, जो ओज़ोन क्षरण को प्रभावित करता है। विभिन्न स्रोतों से उत्सर्जित मीथेन गैस 15-20% ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने मे सहायक है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी) के अनुसार, मीथेन स्तर 1% प्रति वर्ष के हिसाब से 19वीं शताब्दी में 700 पी.पी.बी से बढ़कर अब तक ~1840 पी.पी.बी हो चुका है।

वैश्विक परिदृश्य में, लगभग 90% मीथेन क्षोभमंडल में मौजूद मुक्त हाईड्रोक्सिल आयनों (वायुमण्डल के प्रक्षालकों) द्वारा रासायनिक अभिक्रियाओं के जरिये आक्सीकृत हो जाता है। जबकि आक्सीय मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं (मेथनोट्रोफ्स) की उपस्थिति के कारण दूसरी सबसे बड़ी मीथेन अवशोषक है।

वैश्विक मीथेन उत्सर्जन

मीथेन मुख्यतः प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित होता है। वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन (598 मीट्रिक टन) तथा अपनयन (576 मीट्रिक टन) में असंतुलन के कारण वायुमंडल में मीथेन की मात्रा 22 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है। प्राकृतिक तौर पर मीथेन आर्द्र भूमि, दीमक, महासागरों, हाइड्रेट्स इत्यादि से उत्सर्जित होता है, जबकि मानवकृत स्रोतों में धान के खेती, कोयला खदानें, जीवाश्म ईंधन, प्राकृतिक गैस, कृषि पशुधन, म्यूनिसिपल अपशिष्ट व म्यूनिसिपल अपशिष्ट जल, बायोमास का जलना आदि मुख्य हैं। प्राकृतिक स्रोतों में आर्द्र भूमि (30%) मीथेन का सबसे बड़ा है। जबकि वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का करीब 60% मानुषी क्रियाओं द्वारा होता है।

मीथेनउत्सर्जक जीवाणु (मेथनोजेन बैक्टीरिया)

प्राकृतिक तौर पर मीथेन का उत्सर्जन मीथेनउत्सर्जक जीवाणुओं द्वारा संपादित होता है। ये जीवाणु कार्बनिक यौगिकों का अनाक्सीय विधि द्वारा (आक्सीजन की अनुपस्थिति में) अपघटन करते हैं। जिसमें कार्बनडाईऑक्साइड एवं मीथेन गैस उत्पन्न होती है। मीथेनउत्सर्जक जीवाणु आर्कीबैक्टीरिया ग्रुप के सदस्य होते हैं। ये गोलाणुवत् या दंडाणुवत् होते हैं।

मेथनोकाकस, मेथनोकैलियस, मेथनोसार्सिना, मेथनोप्लानू, मेथनोस्पाइरिलम, इत्यादि मीथेनउत्सर्जक जीवाणु जल प्लावित स्थानों, अवसादों तथा तलछटों में रहकर रासायनिक अभिक्रियाओं के फलस्वरूप मीथेन उत्सर्जित करते हैं। इसके अलावा कुछ मीथेनउत्सर्जक ग्रुप के सदस्य जुगाली करने वाले जानवरों के आमाशय में भी वास करते हैं। जो वहाँ मौजूद अन्य जीवाणुओं से मुक्त हाइड्रोजन तथा कार्बनडाईऑक्साइड द्वारा मीथेन उत्पादित करते हैं।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

 

मीथेनशोषक जीवाणु (मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया)

मीथेनशोषक एक अकेन्द्रक (प्रोकैरयॉट) जीवाणु है, जो मीथेन को अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए प्रयोग करता है। अब तक ज्ञात स्रोतों के अनुसार धरती पर मीथेनशोषक ही केवल ऐसी जैविक इकाई है जो इस ग्रीन हाउस गैस को अपने ऊर्जा एवं कार्बन के रूप में उपयोग करता है। अनुमान के अनुसार, मीथेनशोषकों द्वारा पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 10-40 टेराग्राम मीथेन आक्सीकृत होती है जो कि संपूर्ण आक्सीकृत मीथेन का लगभग 6-10% तक होता है।

मीथेनशोषक धरती पर सर्वव्यापी होते हैं, जो सामान्य क्षेत्रों (आर्द्र भूमि, धान के खेत, वन मृदा, समुद्री जल, कीचड़, गोबर, इत्यादि) से लेकर अतिशय कठिन परिस्थितियों (गरम जल स्रोतों, ठंडे प्रदेशों, इत्यादि) में भी पाये जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मीथेनशोषकों का प्रयोगशाला में कल्टीवेशन (उगाना) अपेक्षाकृत कठिन होता है, अभी तक केवल कुछ वंशो /स्पीसीज़ को ही सफलतापूर्वक कल्टीवेट किया जा सका है। मीथेनशोषकों को क्रमिक उद्भव, कार्यिकी, आकार एवं जैव रासायनिक गतिविधियों के आधार पर अध्ययन हेतु

मुख्यतः टाइप I (मिथायलोमोनास, मिथायलोस्फेरा, मिथायलोसार्सिना, मिथायलोमाइक्रोबियम, मिथायलोबैक्टर, मिथायलोकैलडम, मिथायलोकोकस, मिथायलोहैलोबस, इत्यादि) एवं टाइप II (मिथायलोसिस्टिस, मिथायलोसेला, मिथायलोकैप्सा, इत्यादि) में बांटा गया है। ये गोलाणुवत्, दंडाणुवत्, अर्धदंडाणुवत् एवं सर्पिलाकार होते हैं। जबकि हाल में खोजे गए वेरुकोमाइक्रोबिया को  टाइप III मीथेनशोषक के रूप में निरूपित किया जा सकता है। मीथेन अवशोषण के आधार पर निम्न एवं उच्च एफिनिटी (आकर्षण) आक्सीकारक मीथेनशोषकों में बांटा गया है। निम्न एफिनिटी आक्सीकारक मुख्यतः उच्च मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर जबकि उच्च एफिनिटी आक्सीकारक निम्न मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर वास करते हैं।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

चित्र 1: मीथेन का पर्यावरण में उत्सर्जन एवं अवशोषण का रेखांकन दर्शाया गया है

 

ग्रीन हाउस गैस (मीथेन) प्रशमन

मीथेनशोषक जीवाणु अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए मीथेन को कार्बन एवं ऊर्जा के रूप में प्रयोग करता है। मीथेनशोषक वातावरण में मौजूद मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एंजाइम मीथेन को कार्बनडाईऑक्साइड एवं अन्य छोटे घटकों में विघटित कर देता है। मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मुख्यतः दो (पर्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एवं सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज) प्रकार का होता है।

पार्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मिथायलोसेला को छोडकर लगभग सभी मीथेनशोषकों में रिपोर्टेड है, जबकि सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज केवल कुछ मीथेनशोषकों में ही पाया जाता है। टाइप I मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन को रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा टाइप II सेरीन पाथवे द्वारा आक्सीकृत करते हैं। उपर्युक्त एंज़ाइम द्वारा मीथेन मेथनोल में परिवर्तित होकर अन्य एंज़ाइमों की सहायता से फार्मेल्डिहाइड बनाता है, तत्पश्चात रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा सेरीन पाथवे द्वारा अंतिम उत्पाद कार्बनडाईऑक्साइड के रूप में उत्सर्जित होता है।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

एमडीएच= मेथनोल डिहाइड्रोजिनेज, एफ़एडीएच= फार्मेल्डिहाइड डिहाइड्रोजिनेज, एफ़डीएच= फार्मेट डिहाइड्रोजिनेज

प्रदूषण क्षरण में योगदान

वर्तमान परिस्थितियों में प्रदूषण एक भयावह रूप ले चुका है। जिसके कारण तमाम तरह की बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। प्रदूषण क्षरण हेतु पूरी दुनिया में नित नई तकनीकी विकसित हो रही है। किन्तु प्रदूषण को ख़त्म करने के लिए जीवाणुओं का प्रयोग किफ़ायती एवं पर्यावरण के अनुकूल होता है। जीवाणुओं में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के एंजाइम प्रदूषकों के जटिल आंतरिक बन्धों/रासायनिक यौगिकों को तोड़कर सरल घटकों में बदल देते हैं।

जो प्रकृति में आसानी से पुनर्चकृत हो जाता है। कई वैज्ञानिकों शोधों के अनुसार, मीथेनशोषकों में पाए जाने वाले एंजाइम मीथेनमोनोआक्सीजिनेज का मीथेन के ऑक्सीकरण अलावा हानिकारक भारी धातुओं, एलिफैटिक हैलाइड्स, एरोमैटिक यौगिकों के इको-फ़्रेंडली निस्तारण में भी सहायक है। जो मृदा में विभिन्न स्रोतों के जरिये पहुँचकर कृषि उत्पादन में अवरोध एवं कई बीमारियों का कारक बनती हैं। साइन्स जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मीथेनशोषक जीवाणु अवायवीय सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित खतरनाक न्यूरोटोक्सिन मेथिलमर्करी को भी अपने उपापचयी एंजाइमों के जरिये सरल घटकों में तोड़कर अवशोषित कर लेते हैं।

वर्तमान युग में विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ में स्थापित हो रही औद्योगिक इकाइयों के कारण कई नई तरह की समस्याओं ने जन्म लिया है। जहाँ एक तरफ विकास के नाम पर वनों के अंधाधुंध कटान को प्रोत्साहन मिल रहा है, वहीं लोगों को आवास एवं पेट भरने के लिए भी निरंतर निर्वनीकरण हो रहा है। जिसके कारण पशु-पक्षियों के वास स्थान के साथ-साथ सूक्ष्मजीवों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। अभी हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि मीथेन आक्सीकरण 10 प्रतिशत तक बढ़ जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेवल में संतुलन आ सकता है।

शोध निष्कर्ष इस तथ्य को प्रमाणित करते है कि वन मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं का सर्वश्रेष्ठ वास स्थान है। परंतु निर्वनीकरण के फलस्वरूप मीथेनशोषकों के वास स्थान में क्षरण हुआ है। जिसके कारण उनके वंशो /स्पीसीज़ में कमी देखी गयी है।

 

चित्र 2: मीथेनशोषक जीवाणुओं द्वारा संपादित उपयोगी कार्य

आधुनिक युग में हमें धारणीय (सस्टनेबल) विकास की तरफ ध्यान देना होगा, जिससे न तो जीवन का मार्ग अवरुद्ध हो और ना ही पृथ्वी सहित अन्य जीव-जंतुओं को हानि पहुँचे। वर्तमान समय में पूरे विश्व में अहर्निश औद्योगिक विकास के चलते पेड़ों के अंधाधुंध कटान, ग्रीन हाउस गैसों के निरंतर उत्सर्जन, नष्ट न होने योग्य जीनोबायोटिक यौगिकों के पर्यावरण में पहुँचने इत्यादि के कारण पारिस्थितिक तंत्र पर हो रहे कुप्रभाव से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।

दुनिया के कई देशों के गैर जिम्मेदाराना रवैये को देखते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन दर पर लगाम लगाना आसान नही है। किन्तु वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि मीथेन अवशोषण 10% तक बढ़ा दिया जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेविल में संतुलन हो सकता है। चूंकि मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन का अवशोषण करते हैं, इसलिये मीथेनशोषकों के वंशों का प्रयोग मीथेन संतुलन में सर्वोत्तम होगा। जिन क्षेत्रों से वनों का क्षरण हुआ है, उस भूमि को पुनर्वनाच्छादित करना होगा। जिससे क्षरित मीथेनशोषकों का पुनर्स्थापन, वैश्विक मीथेन स्तर पर लगाम लग सके तथा ग्लोबल वार्मिंग का स्तर कम हो। पृथ्वी पर जीवन सतत एवं समृद्धशाली बन सके।

 

 

 

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

विश्व स्तर पर कई विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है| कृषि में भारत का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भारत की लगभग ७०% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है एवं सकल घरेलू उत्पाद में लगभग १७.४ प्रतिशत कृषि का योगदान है। वर्तमान में दुनिया की जनसंख्या लगभग ७.२ अरब से २०५० के अंत तक ९.६ अरब पहुँचने की संभावना है। बढ़ती  जनसंख्या की रफ़्तार को देखते हुए उस समय तक सभी को भोजन देने के लिए अनाज उत्पादन लगभग ५०% (२.१-३ अरब टन) तक बढ़ाना होगा।

इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में तकनीक विकसित करने की जरुरत है, जिससे आने वाले समय में आम जनमानस को उसकी जरूरत के मुताबिक कृषि भूमि को बिना संदूषित किए कम लागत और श्रम द्वारा पौष्टिक एवं स्वच्छ भोजन मुहैया कराया जा सके। देश में लगातार घटती कृषि योग्य भूमि एवं अधिक उत्पादन की लालच में रासायनिक खादों से दूषित हो रही मृदा का भविष्य के लिए अच्छे कृषि उत्पादन के स्वस्थ संकेत नही हैं। ऐसे में देश की एक तिहाई जनसंख्या को पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना और साथ ही साथ मृदा की उत्पादकता स्तर को बनाये रखना वैज्ञानिकों, सरकार एवं किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती है।

चावल देश की लगभग ७०-८० प्रतिशत जनसंख्या के भोजन का मुख्य हिस्सा है। जिसमें हम विश्व में दूसरे स्थान पर है| किन्तु मृदा की उर्वरा शक्ति, उर्वरक प्रयोग इत्यादि कारणों से धान की पैदावार प्रभावित हुई है, और यही स्थिति बनी रही तो आने वाले समय में हमारी दूसरे नम्बर की स्थिति भी प्रभावित हो सकती है। सामान्यतः उपयोग में लाने वाले रासायनिक उर्वरक मृदा के भौतिक-रासायनिक एवं जैविक गुणों पर ऋणात्मक प्रभाव डाल रहे हैं।

लेकिन हाल ही में खोजी की गयी एक नई तकनीक जो कृषि अपशिष्ट को पायरोलिसिस विधि द्वारा नए प्रकार के उर्वरक रूप में तैयार किया जाता है। जिसे बायोचार नाम से जाना जाता है। लेकिन हमारे देश में जानकारी के अभाव में मिलियन टन में निकलने वाले कृषि अपशिष्ट को जला दिया जाता है। जबकि कृषि अपशिष्ट का बायोमास जलने के बाद उपयोगी नहीं रहता है। इसलिए इस नई  तकनीक को वर्तमान में वैज्ञानिकों, सरकार एवं किसानों द्वारा खूब प्रोत्साहन मिल रहा है। जिससे कि कृषि अपशिष्ट को कृषि उपयोगी बनाया जा सके और कम लागत में अच्छा कृषि उत्पादन मिल सके।

बायोचार क्या है?

बायोचार एक गहरे काले रंग का अग्रवर्ती कार्बन युक्त कणमय पदार्थ होता है, यह जैविक कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों को प्रयोग करके तैयार किया जाता है।जैसे धान की भूसी, लकड़ी का बुरादा, कुक्कुट अपशिष्ट आदि का उपयोग बायोचार बनाने में किया जाता है। इसमें कार्बन के अतिरिक्त कुछ मात्रा में अन्य तत्व (हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, सिलिकॉन, पोटैशियम एवं प्लैटिनम, आदि) भी पाये जाते हैं। इसमें किसी भी कृषि अपशिष्ट को ऑक्सीजन कि कम मात्रा में परोक्ष रूप से जलाकर बनाया जाता है, जिसको पायरोलिसिस कहते हैं। यह मृदा स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी उर्वरक होता है, जिसके उपचार से फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ने के साथ साथ पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है।

कृषि अपशिष्ट से बायोचार का उत्पादन

कृषि अपशिष्ट को उच्च तापमान पर ड्रम या हीप विधि द्वारा तैयार किया जाता है। तापमान की सीमा अलग-अलग (३००,४००,५००,६००,७००,८०० और ९००० डिग्री सेंटीग्रेड) हो सकती है, किन्तु ५००-६०० डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर तैयार किया गया बायोचार ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि इसमें मृदा उपयोगी पोषक तत्वों की मात्रा अपेक्षाकृत  अधिक पाई जाती है। बायोचार बनाने के लिए सर्वप्रथम कृषि अपशिष्ट को किसी धात्विक ड्रम में भरकर बंद कर देते है किन्तु ध्यान देने योग्य बात होती है कि ड्रम को पूर्णरूपेण  बंद नहीं करते है,

उसमें थोड़ा स्थान वायु प्रवेश के लिए छोड़ देते हैं, जिससे ड्रम के भीतर पूर्णतया अवायवीय वातावरण नहीं बन पाये। इसके पश्चात् ड्रम के नीचे लगभग ३०-४० मिनट्स के लिए आग जलाते हैं, इसका तापमान स्वयं ही लगभग ५००-६०० डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है। जब ड्रम से भूरे रंग का धुआं निकलना शुरु हो जाय, तब बायोचार लगभग बनकर तैयार हो जाता है। इसके बाद बायोचार को कुछ समय के लिए खुली हवा में ठंडा होने हेतु छोड़ देते हैं। अंत में यह कृषि अपशिष्ट मृदा उपयोगी बायोचार के रूप में तैयार हो जाता है। उसके बाद उसको प्लास्टिक बैग या कनस्तर में भरकर भविष्य में उपयोग हेतु रख लेते हैं।

     

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदानधान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

क                                                                                                          ख

चित्र: क एवं ख में बायोचार उत्पादन को दर्शाया गया है।

कृषि अपशिष्ट के प्रकार                 

  • धान की भूसी
  • गेहूँ की भूसी
  • मक्के का तना वाला भाग
  • ज्वार की भूसी
  • उड़द की भूसी
  • सरसों का फली एवं तने वाला भाग
  • बाजरे की भूसी

कृषि अपशिष्ट बायोचार की विशेषतायें

  • मृदा की पानी रोकने की क्षमता में वृद्धि करता है
  • मृदा उपयोगी सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृद्धि करता है
  • मृदा में सूक्ष्मजीवों के लिए सुरक्षा कवच का काम करता है
  • पौधे की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता है
  • मृदा कार्बन एवं नाइट्रोजन पूल में सुधार करता है
  • फसलों की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है
  • मृदा में मीथेन/ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाता है

धान की फसल में बायोचार का उपयोग एवं उसके सकरात्मक प्रभाव

तने की लम्बाई

कई वैज्ञानिक शोधों के दौरान पाया गया है कि बायोचार उपचारित धान में पौधे की कायिक अवस्था मे अधिक वृद्धि होती है। इसके अलावा पौधे के तने एवं जड़ इत्यादि में भी अपेक्षाकृत उच्च स्तरीय वृद्धि देखी गयी है। चित्र ग एवं घ में पौधे की वृद्धि को दर्शाया गया है। बायोचार उपचारित मृदा में प्रारम्भिक अवस्था में धान के पौधे में लगभग १-२ महीने के मध्य में  उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ हुई है तथा धान की उत्पादक दर अन्य उर्वरकों की तुलना में अधिक पाई गयी है।

साथ ही साथ बायोचार उपचारित मृदा में सूक्ष्मजैव विविधता बढ़ने से जैविक क्रियाओं में भी सुधार आया है। धान के पौधे के तने की वृद्धि इस बात को दर्शाती है की उसका बायोमास भी उसी अनुपात मे बढ़ा होगा। बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ स्थित पर्यावरण विज्ञान विभाग के शोध प्रक्षेत्र में रिसर्च के दौरान पाया गया कि बायोचार उपचारित मृदा के धान के पौधों का बायोमास बायोचार रहित मृदा के धान के पौधों के बायोमास की तुलना में लगभग दो गुना ज्यादा था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बायोचार उपचारित मृदा में धान सहित अन्य फसलों का उत्पादन अधिक होता है|

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदानधान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

ग                                                                                                                 घ

चित्र: ग एवं घ में धान के पौधे के तने का मापन दर्शाया गया है

धान के पेनिकल (पुष्पगुच्छ) की लम्बाई

बायोचार का प्रभाव तने की लम्बाई के साथ-साथ पौधे की पेनिकल (पुष्पगुच्छ) लेंथ पर भी होता है। उपरोक्त शोध के दौरान देखा गया कि बायोचार उपचारित मृदा की तुलना में बायोचार रहित मृदा में लगाये गए पौधे के तने और पेनिकल (पुष्पगुच्छ) लेंथ कम (चित्र छ) थी। जबकि पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई का मापन अलग-अलग अवस्थाओं में किया गया था।

पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई को प्रथमतः उसकी कायिक अवस्था में तथा द्वितीयतः उसकी परिपक्व अवस्था में मापा गया था। परिपक्व अवस्था की तुलना मे कायिक अवस्था में वृद्धि का स्तर अधिक था। इस प्रकार बायोचार उपचारित मृदा में सबसे ज्यादा प्रभाव पौधे की कायिक अवस्था में होता है। जिसमें कि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने पर इस तरह का सकारात्मक परिणाम नहीं मिलता है।

 

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

च                                                                                         छ

चित्र: च एवं छ में धान के पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई का मापन दिखाया गया है

 

धान की उत्पादकता

बायोचार का उपयोग धान के खेत मे छोटे-बड़े दोनों ही स्तरों पर किया गया है तथा यह भी देखा गया कि इसके उपयोग से धान की उत्पादन दर पर सकारात्मक प्रभाव होता है और धान की फसल में बायोचार के उपयोग से उल्लेखनीय परिणाम भी मिले हैं। धान की उत्पादन दर के बढने के साथ साथ मृदा कि उर्वरक शक्ति लम्बे समय तक प्रभावशाली बनी रहती है|

कहा जा सकता है कि रासायनिक उर्वरक की तुलना में यह बहुत लाभकारी होता है। यह फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण अनुकूल भी होता है। इसके अनेक पर्यावर्णीय लाभ हैं। धान की खेती में इसको प्रयोग करने पर उच्च स्तरीय परिणाम मिलते है। यह मृदा की उर्वरा शक्ति को बिना किसी नुकसान के लगभग दो गुना बढ़ा देता है।

मृदा की उच्च उत्पादन क्षमता उसके अन्दर मौजूद पोषक तत्वों पर निर्भर करती है। जितने ज्यादा उच्च मात्रा में उसके अंदर पोषक तत्व होंगे, उस मृदा की उत्पादन दर उतनी अधिक होगी। वर्तमान में किसान उच्च स्तर का उत्पादन पाने की लालसा में विभिन्न प्रकार के हानिकारक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जो मृदा के लिए काफी नुकसानदायक है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों  के अत्यधिक प्रयोग से मृदा के स्वास्थ के साथ-साथ जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है।