मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन पूरे विश्व में एक ज्वलंत वायुमंडलीय मुद्दा है। जिसके लिए दुनियाभर के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद एवं नेता चिंतित हैं। ग्लोबल वार्मिंग के लिए पृथ्वी से प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित विभिन्न प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें (कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन, जलवाष्प, क्लोरो-फ़्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ़्लोरोकार्बन, इत्यादि) ज़िम्मेदार हैं। सामान्यतः ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बनडाईऑक्साइड को ज़िम्मेदार माना जाता है, किन्तु ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में मीथेन कार्बनडाईऑक्साइड की अपेक्षा लगभग 30 गुना प्रबल है।

करीब 1.8 पी.पी.एम. मात्रा में मौजूद मीथेन गैस वातावरणीय आक्सीकरण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह क्षोभमंडलीय जलवाष्प का भी कारण है, जो ओज़ोन क्षरण को प्रभावित करता है। विभिन्न स्रोतों से उत्सर्जित मीथेन गैस 15-20% ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने मे सहायक है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई.पी.सी.सी) के अनुसार, मीथेन स्तर 1% प्रति वर्ष के हिसाब से 19वीं शताब्दी में 700 पी.पी.बी से बढ़कर अब तक ~1840 पी.पी.बी हो चुका है।

वैश्विक परिदृश्य में, लगभग 90% मीथेन क्षोभमंडल में मौजूद मुक्त हाईड्रोक्सिल आयनों (वायुमण्डल के प्रक्षालकों) द्वारा रासायनिक अभिक्रियाओं के जरिये आक्सीकृत हो जाता है। जबकि आक्सीय मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं (मेथनोट्रोफ्स) की उपस्थिति के कारण दूसरी सबसे बड़ी मीथेन अवशोषक है।

वैश्विक मीथेन उत्सर्जन

मीथेन मुख्यतः प्राकृतिक एवं मानवकृत स्रोतों से उत्सर्जित होता है। वैश्विक स्तर पर उत्सर्जन (598 मीट्रिक टन) तथा अपनयन (576 मीट्रिक टन) में असंतुलन के कारण वायुमंडल में मीथेन की मात्रा 22 मीट्रिक टन प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है। प्राकृतिक तौर पर मीथेन आर्द्र भूमि, दीमक, महासागरों, हाइड्रेट्स इत्यादि से उत्सर्जित होता है, जबकि मानवकृत स्रोतों में धान के खेती, कोयला खदानें, जीवाश्म ईंधन, प्राकृतिक गैस, कृषि पशुधन, म्यूनिसिपल अपशिष्ट व म्यूनिसिपल अपशिष्ट जल, बायोमास का जलना आदि मुख्य हैं। प्राकृतिक स्रोतों में आर्द्र भूमि (30%) मीथेन का सबसे बड़ा है। जबकि वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का करीब 60% मानुषी क्रियाओं द्वारा होता है।

मीथेनउत्सर्जक जीवाणु (मेथनोजेन बैक्टीरिया)

प्राकृतिक तौर पर मीथेन का उत्सर्जन मीथेनउत्सर्जक जीवाणुओं द्वारा संपादित होता है। ये जीवाणु कार्बनिक यौगिकों का अनाक्सीय विधि द्वारा (आक्सीजन की अनुपस्थिति में) अपघटन करते हैं। जिसमें कार्बनडाईऑक्साइड एवं मीथेन गैस उत्पन्न होती है। मीथेनउत्सर्जक जीवाणु आर्कीबैक्टीरिया ग्रुप के सदस्य होते हैं। ये गोलाणुवत् या दंडाणुवत् होते हैं।

मेथनोकाकस, मेथनोकैलियस, मेथनोसार्सिना, मेथनोप्लानू, मेथनोस्पाइरिलम, इत्यादि मीथेनउत्सर्जक जीवाणु जल प्लावित स्थानों, अवसादों तथा तलछटों में रहकर रासायनिक अभिक्रियाओं के फलस्वरूप मीथेन उत्सर्जित करते हैं। इसके अलावा कुछ मीथेनउत्सर्जक ग्रुप के सदस्य जुगाली करने वाले जानवरों के आमाशय में भी वास करते हैं। जो वहाँ मौजूद अन्य जीवाणुओं से मुक्त हाइड्रोजन तथा कार्बनडाईऑक्साइड द्वारा मीथेन उत्पादित करते हैं।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

 

मीथेनशोषक जीवाणु (मेथनोट्रोफिक बैक्टीरिया)

मीथेनशोषक एक अकेन्द्रक (प्रोकैरयॉट) जीवाणु है, जो मीथेन को अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए प्रयोग करता है। अब तक ज्ञात स्रोतों के अनुसार धरती पर मीथेनशोषक ही केवल ऐसी जैविक इकाई है जो इस ग्रीन हाउस गैस को अपने ऊर्जा एवं कार्बन के रूप में उपयोग करता है। अनुमान के अनुसार, मीथेनशोषकों द्वारा पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 10-40 टेराग्राम मीथेन आक्सीकृत होती है जो कि संपूर्ण आक्सीकृत मीथेन का लगभग 6-10% तक होता है।

मीथेनशोषक धरती पर सर्वव्यापी होते हैं, जो सामान्य क्षेत्रों (आर्द्र भूमि, धान के खेत, वन मृदा, समुद्री जल, कीचड़, गोबर, इत्यादि) से लेकर अतिशय कठिन परिस्थितियों (गरम जल स्रोतों, ठंडे प्रदेशों, इत्यादि) में भी पाये जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मीथेनशोषकों का प्रयोगशाला में कल्टीवेशन (उगाना) अपेक्षाकृत कठिन होता है, अभी तक केवल कुछ वंशो /स्पीसीज़ को ही सफलतापूर्वक कल्टीवेट किया जा सका है। मीथेनशोषकों को क्रमिक उद्भव, कार्यिकी, आकार एवं जैव रासायनिक गतिविधियों के आधार पर अध्ययन हेतु

मुख्यतः टाइप I (मिथायलोमोनास, मिथायलोस्फेरा, मिथायलोसार्सिना, मिथायलोमाइक्रोबियम, मिथायलोबैक्टर, मिथायलोकैलडम, मिथायलोकोकस, मिथायलोहैलोबस, इत्यादि) एवं टाइप II (मिथायलोसिस्टिस, मिथायलोसेला, मिथायलोकैप्सा, इत्यादि) में बांटा गया है। ये गोलाणुवत्, दंडाणुवत्, अर्धदंडाणुवत् एवं सर्पिलाकार होते हैं। जबकि हाल में खोजे गए वेरुकोमाइक्रोबिया को  टाइप III मीथेनशोषक के रूप में निरूपित किया जा सकता है। मीथेन अवशोषण के आधार पर निम्न एवं उच्च एफिनिटी (आकर्षण) आक्सीकारक मीथेनशोषकों में बांटा गया है। निम्न एफिनिटी आक्सीकारक मुख्यतः उच्च मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर जबकि उच्च एफिनिटी आक्सीकारक निम्न मीथेन उत्सर्जन वाले स्थानों पर वास करते हैं।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

चित्र 1: मीथेन का पर्यावरण में उत्सर्जन एवं अवशोषण का रेखांकन दर्शाया गया है

 

ग्रीन हाउस गैस (मीथेन) प्रशमन

मीथेनशोषक जीवाणु अपने जैविक क्रियाओं के संचालन के लिए मीथेन को कार्बन एवं ऊर्जा के रूप में प्रयोग करता है। मीथेनशोषक वातावरण में मौजूद मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एंजाइम मीथेन को कार्बनडाईऑक्साइड एवं अन्य छोटे घटकों में विघटित कर देता है। मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मुख्यतः दो (पर्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज एवं सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज) प्रकार का होता है।

पार्टीकुलेट-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज मिथायलोसेला को छोडकर लगभग सभी मीथेनशोषकों में रिपोर्टेड है, जबकि सोल्यूबल-मीथेनमोनोआक्सीजिनेज केवल कुछ मीथेनशोषकों में ही पाया जाता है। टाइप I मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन को रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा टाइप II सेरीन पाथवे द्वारा आक्सीकृत करते हैं। उपर्युक्त एंज़ाइम द्वारा मीथेन मेथनोल में परिवर्तित होकर अन्य एंज़ाइमों की सहायता से फार्मेल्डिहाइड बनाता है, तत्पश्चात रिबुलोस मोनो फॉस्फेट पाथवे तथा सेरीन पाथवे द्वारा अंतिम उत्पाद कार्बनडाईऑक्साइड के रूप में उत्सर्जित होता है।

मीथेनशोषक (मेथनोट्रोफ) जीवाणुओं का पर्यावरणीय योगदान

एमडीएच= मेथनोल डिहाइड्रोजिनेज, एफ़एडीएच= फार्मेल्डिहाइड डिहाइड्रोजिनेज, एफ़डीएच= फार्मेट डिहाइड्रोजिनेज

प्रदूषण क्षरण में योगदान

वर्तमान परिस्थितियों में प्रदूषण एक भयावह रूप ले चुका है। जिसके कारण तमाम तरह की बीमारियाँ पैदा हो रही हैं। प्रदूषण क्षरण हेतु पूरी दुनिया में नित नई तकनीकी विकसित हो रही है। किन्तु प्रदूषण को ख़त्म करने के लिए जीवाणुओं का प्रयोग किफ़ायती एवं पर्यावरण के अनुकूल होता है। जीवाणुओं में पाये जाने वाले विभिन्न प्रकार के एंजाइम प्रदूषकों के जटिल आंतरिक बन्धों/रासायनिक यौगिकों को तोड़कर सरल घटकों में बदल देते हैं।

जो प्रकृति में आसानी से पुनर्चकृत हो जाता है। कई वैज्ञानिकों शोधों के अनुसार, मीथेनशोषकों में पाए जाने वाले एंजाइम मीथेनमोनोआक्सीजिनेज का मीथेन के ऑक्सीकरण अलावा हानिकारक भारी धातुओं, एलिफैटिक हैलाइड्स, एरोमैटिक यौगिकों के इको-फ़्रेंडली निस्तारण में भी सहायक है। जो मृदा में विभिन्न स्रोतों के जरिये पहुँचकर कृषि उत्पादन में अवरोध एवं कई बीमारियों का कारक बनती हैं। साइन्स जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मीथेनशोषक जीवाणु अवायवीय सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित खतरनाक न्यूरोटोक्सिन मेथिलमर्करी को भी अपने उपापचयी एंजाइमों के जरिये सरल घटकों में तोड़कर अवशोषित कर लेते हैं।

वर्तमान युग में विकास के नाम पर हो रही अंधी दौड़ में स्थापित हो रही औद्योगिक इकाइयों के कारण कई नई तरह की समस्याओं ने जन्म लिया है। जहाँ एक तरफ विकास के नाम पर वनों के अंधाधुंध कटान को प्रोत्साहन मिल रहा है, वहीं लोगों को आवास एवं पेट भरने के लिए भी निरंतर निर्वनीकरण हो रहा है। जिसके कारण पशु-पक्षियों के वास स्थान के साथ-साथ सूक्ष्मजीवों पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। अभी हाल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि मीथेन आक्सीकरण 10 प्रतिशत तक बढ़ जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेवल में संतुलन आ सकता है।

शोध निष्कर्ष इस तथ्य को प्रमाणित करते है कि वन मृदा मीथेनशोषक जीवाणुओं का सर्वश्रेष्ठ वास स्थान है। परंतु निर्वनीकरण के फलस्वरूप मीथेनशोषकों के वास स्थान में क्षरण हुआ है। जिसके कारण उनके वंशो /स्पीसीज़ में कमी देखी गयी है।

 

चित्र 2: मीथेनशोषक जीवाणुओं द्वारा संपादित उपयोगी कार्य

आधुनिक युग में हमें धारणीय (सस्टनेबल) विकास की तरफ ध्यान देना होगा, जिससे न तो जीवन का मार्ग अवरुद्ध हो और ना ही पृथ्वी सहित अन्य जीव-जंतुओं को हानि पहुँचे। वर्तमान समय में पूरे विश्व में अहर्निश औद्योगिक विकास के चलते पेड़ों के अंधाधुंध कटान, ग्रीन हाउस गैसों के निरंतर उत्सर्जन, नष्ट न होने योग्य जीनोबायोटिक यौगिकों के पर्यावरण में पहुँचने इत्यादि के कारण पारिस्थितिक तंत्र पर हो रहे कुप्रभाव से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है।

दुनिया के कई देशों के गैर जिम्मेदाराना रवैये को देखते हुए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन दर पर लगाम लगाना आसान नही है। किन्तु वैज्ञानिकों एवं शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि मीथेन अवशोषण 10% तक बढ़ा दिया जाय तो वैश्विक स्तर पर इसके लेविल में संतुलन हो सकता है। चूंकि मीथेनशोषक जीवाणु मीथेन का अवशोषण करते हैं, इसलिये मीथेनशोषकों के वंशों का प्रयोग मीथेन संतुलन में सर्वोत्तम होगा। जिन क्षेत्रों से वनों का क्षरण हुआ है, उस भूमि को पुनर्वनाच्छादित करना होगा। जिससे क्षरित मीथेनशोषकों का पुनर्स्थापन, वैश्विक मीथेन स्तर पर लगाम लग सके तथा ग्लोबल वार्मिंग का स्तर कम हो। पृथ्वी पर जीवन सतत एवं समृद्धशाली बन सके।

 

 

 

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

विश्व स्तर पर कई विकसित एवं विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है| कृषि में भारत का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भारत की लगभग ७०% जनसंख्या कृषि पर निर्भर है एवं सकल घरेलू उत्पाद में लगभग १७.४ प्रतिशत कृषि का योगदान है। वर्तमान में दुनिया की जनसंख्या लगभग ७.२ अरब से २०५० के अंत तक ९.६ अरब पहुँचने की संभावना है। बढ़ती  जनसंख्या की रफ़्तार को देखते हुए उस समय तक सभी को भोजन देने के लिए अनाज उत्पादन लगभग ५०% (२.१-३ अरब टन) तक बढ़ाना होगा।

इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में तकनीक विकसित करने की जरुरत है, जिससे आने वाले समय में आम जनमानस को उसकी जरूरत के मुताबिक कृषि भूमि को बिना संदूषित किए कम लागत और श्रम द्वारा पौष्टिक एवं स्वच्छ भोजन मुहैया कराया जा सके। देश में लगातार घटती कृषि योग्य भूमि एवं अधिक उत्पादन की लालच में रासायनिक खादों से दूषित हो रही मृदा का भविष्य के लिए अच्छे कृषि उत्पादन के स्वस्थ संकेत नही हैं। ऐसे में देश की एक तिहाई जनसंख्या को पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना और साथ ही साथ मृदा की उत्पादकता स्तर को बनाये रखना वैज्ञानिकों, सरकार एवं किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती है।

चावल देश की लगभग ७०-८० प्रतिशत जनसंख्या के भोजन का मुख्य हिस्सा है। जिसमें हम विश्व में दूसरे स्थान पर है| किन्तु मृदा की उर्वरा शक्ति, उर्वरक प्रयोग इत्यादि कारणों से धान की पैदावार प्रभावित हुई है, और यही स्थिति बनी रही तो आने वाले समय में हमारी दूसरे नम्बर की स्थिति भी प्रभावित हो सकती है। सामान्यतः उपयोग में लाने वाले रासायनिक उर्वरक मृदा के भौतिक-रासायनिक एवं जैविक गुणों पर ऋणात्मक प्रभाव डाल रहे हैं।

लेकिन हाल ही में खोजी की गयी एक नई तकनीक जो कृषि अपशिष्ट को पायरोलिसिस विधि द्वारा नए प्रकार के उर्वरक रूप में तैयार किया जाता है। जिसे बायोचार नाम से जाना जाता है। लेकिन हमारे देश में जानकारी के अभाव में मिलियन टन में निकलने वाले कृषि अपशिष्ट को जला दिया जाता है। जबकि कृषि अपशिष्ट का बायोमास जलने के बाद उपयोगी नहीं रहता है। इसलिए इस नई  तकनीक को वर्तमान में वैज्ञानिकों, सरकार एवं किसानों द्वारा खूब प्रोत्साहन मिल रहा है। जिससे कि कृषि अपशिष्ट को कृषि उपयोगी बनाया जा सके और कम लागत में अच्छा कृषि उत्पादन मिल सके।

बायोचार क्या है?

बायोचार एक गहरे काले रंग का अग्रवर्ती कार्बन युक्त कणमय पदार्थ होता है, यह जैविक कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों को प्रयोग करके तैयार किया जाता है।जैसे धान की भूसी, लकड़ी का बुरादा, कुक्कुट अपशिष्ट आदि का उपयोग बायोचार बनाने में किया जाता है। इसमें कार्बन के अतिरिक्त कुछ मात्रा में अन्य तत्व (हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, सिलिकॉन, पोटैशियम एवं प्लैटिनम, आदि) भी पाये जाते हैं। इसमें किसी भी कृषि अपशिष्ट को ऑक्सीजन कि कम मात्रा में परोक्ष रूप से जलाकर बनाया जाता है, जिसको पायरोलिसिस कहते हैं। यह मृदा स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी उर्वरक होता है, जिसके उपचार से फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ने के साथ साथ पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है।

कृषि अपशिष्ट से बायोचार का उत्पादन

कृषि अपशिष्ट को उच्च तापमान पर ड्रम या हीप विधि द्वारा तैयार किया जाता है। तापमान की सीमा अलग-अलग (३००,४००,५००,६००,७००,८०० और ९००० डिग्री सेंटीग्रेड) हो सकती है, किन्तु ५००-६०० डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर तैयार किया गया बायोचार ज्यादा प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि इसमें मृदा उपयोगी पोषक तत्वों की मात्रा अपेक्षाकृत  अधिक पाई जाती है। बायोचार बनाने के लिए सर्वप्रथम कृषि अपशिष्ट को किसी धात्विक ड्रम में भरकर बंद कर देते है किन्तु ध्यान देने योग्य बात होती है कि ड्रम को पूर्णरूपेण  बंद नहीं करते है,

उसमें थोड़ा स्थान वायु प्रवेश के लिए छोड़ देते हैं, जिससे ड्रम के भीतर पूर्णतया अवायवीय वातावरण नहीं बन पाये। इसके पश्चात् ड्रम के नीचे लगभग ३०-४० मिनट्स के लिए आग जलाते हैं, इसका तापमान स्वयं ही लगभग ५००-६०० डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है। जब ड्रम से भूरे रंग का धुआं निकलना शुरु हो जाय, तब बायोचार लगभग बनकर तैयार हो जाता है। इसके बाद बायोचार को कुछ समय के लिए खुली हवा में ठंडा होने हेतु छोड़ देते हैं। अंत में यह कृषि अपशिष्ट मृदा उपयोगी बायोचार के रूप में तैयार हो जाता है। उसके बाद उसको प्लास्टिक बैग या कनस्तर में भरकर भविष्य में उपयोग हेतु रख लेते हैं।

     

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदानधान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

क                                                                                                          ख

चित्र: क एवं ख में बायोचार उत्पादन को दर्शाया गया है।

कृषि अपशिष्ट के प्रकार                 

  • धान की भूसी
  • गेहूँ की भूसी
  • मक्के का तना वाला भाग
  • ज्वार की भूसी
  • उड़द की भूसी
  • सरसों का फली एवं तने वाला भाग
  • बाजरे की भूसी

कृषि अपशिष्ट बायोचार की विशेषतायें

  • मृदा की पानी रोकने की क्षमता में वृद्धि करता है
  • मृदा उपयोगी सूक्ष्मजीवों की संख्या में वृद्धि करता है
  • मृदा में सूक्ष्मजीवों के लिए सुरक्षा कवच का काम करता है
  • पौधे की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करता है
  • मृदा कार्बन एवं नाइट्रोजन पूल में सुधार करता है
  • फसलों की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है
  • मृदा में मीथेन/ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाता है

धान की फसल में बायोचार का उपयोग एवं उसके सकरात्मक प्रभाव

तने की लम्बाई

कई वैज्ञानिक शोधों के दौरान पाया गया है कि बायोचार उपचारित धान में पौधे की कायिक अवस्था मे अधिक वृद्धि होती है। इसके अलावा पौधे के तने एवं जड़ इत्यादि में भी अपेक्षाकृत उच्च स्तरीय वृद्धि देखी गयी है। चित्र ग एवं घ में पौधे की वृद्धि को दर्शाया गया है। बायोचार उपचारित मृदा में प्रारम्भिक अवस्था में धान के पौधे में लगभग १-२ महीने के मध्य में  उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज़ हुई है तथा धान की उत्पादक दर अन्य उर्वरकों की तुलना में अधिक पाई गयी है।

साथ ही साथ बायोचार उपचारित मृदा में सूक्ष्मजैव विविधता बढ़ने से जैविक क्रियाओं में भी सुधार आया है। धान के पौधे के तने की वृद्धि इस बात को दर्शाती है की उसका बायोमास भी उसी अनुपात मे बढ़ा होगा। बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ स्थित पर्यावरण विज्ञान विभाग के शोध प्रक्षेत्र में रिसर्च के दौरान पाया गया कि बायोचार उपचारित मृदा के धान के पौधों का बायोमास बायोचार रहित मृदा के धान के पौधों के बायोमास की तुलना में लगभग दो गुना ज्यादा था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि बायोचार उपचारित मृदा में धान सहित अन्य फसलों का उत्पादन अधिक होता है|

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदानधान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

ग                                                                                                                 घ

चित्र: ग एवं घ में धान के पौधे के तने का मापन दर्शाया गया है

धान के पेनिकल (पुष्पगुच्छ) की लम्बाई

बायोचार का प्रभाव तने की लम्बाई के साथ-साथ पौधे की पेनिकल (पुष्पगुच्छ) लेंथ पर भी होता है। उपरोक्त शोध के दौरान देखा गया कि बायोचार उपचारित मृदा की तुलना में बायोचार रहित मृदा में लगाये गए पौधे के तने और पेनिकल (पुष्पगुच्छ) लेंथ कम (चित्र छ) थी। जबकि पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई का मापन अलग-अलग अवस्थाओं में किया गया था।

पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई को प्रथमतः उसकी कायिक अवस्था में तथा द्वितीयतः उसकी परिपक्व अवस्था में मापा गया था। परिपक्व अवस्था की तुलना मे कायिक अवस्था में वृद्धि का स्तर अधिक था। इस प्रकार बायोचार उपचारित मृदा में सबसे ज्यादा प्रभाव पौधे की कायिक अवस्था में होता है। जिसमें कि रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने पर इस तरह का सकारात्मक परिणाम नहीं मिलता है।

 

धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान धान की खेती में बायोचार के रूप में कृषि अपशिष्ट का योगदान

च                                                                                         छ

चित्र: च एवं छ में धान के पौधे के पुष्पगुच्छ की लम्बाई का मापन दिखाया गया है

 

धान की उत्पादकता

बायोचार का उपयोग धान के खेत मे छोटे-बड़े दोनों ही स्तरों पर किया गया है तथा यह भी देखा गया कि इसके उपयोग से धान की उत्पादन दर पर सकारात्मक प्रभाव होता है और धान की फसल में बायोचार के उपयोग से उल्लेखनीय परिणाम भी मिले हैं। धान की उत्पादन दर के बढने के साथ साथ मृदा कि उर्वरक शक्ति लम्बे समय तक प्रभावशाली बनी रहती है|

कहा जा सकता है कि रासायनिक उर्वरक की तुलना में यह बहुत लाभकारी होता है। यह फसल की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ पर्यावरण अनुकूल भी होता है। इसके अनेक पर्यावर्णीय लाभ हैं। धान की खेती में इसको प्रयोग करने पर उच्च स्तरीय परिणाम मिलते है। यह मृदा की उर्वरा शक्ति को बिना किसी नुकसान के लगभग दो गुना बढ़ा देता है।

मृदा की उच्च उत्पादन क्षमता उसके अन्दर मौजूद पोषक तत्वों पर निर्भर करती है। जितने ज्यादा उच्च मात्रा में उसके अंदर पोषक तत्व होंगे, उस मृदा की उत्पादन दर उतनी अधिक होगी। वर्तमान में किसान उच्च स्तर का उत्पादन पाने की लालसा में विभिन्न प्रकार के हानिकारक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। जो मृदा के लिए काफी नुकसानदायक है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों  के अत्यधिक प्रयोग से मृदा के स्वास्थ के साथ-साथ जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है।